पृथ्वी माता का महात्म्य …!

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स्नेही जनों नमस्ते ।

विश्व का पहला भूमाता मंदिर अमलनेर (जि. जलगांव) मे स्थापित हो चुका है । भूमि  से जुडे व्यवहार, व्यापार और उद्योग करनेवाले सभी भक्त तथा महानुभावों को अब भूमि देवता की विधीवत उपसना, पूज-अर्चा करने का अवसर प्राप्त हुआ है । जैसे कोई किसी भूखंडपर आरेखन कर प्लाट की बिक्री करता है, कोई विशाल भूखंडपर अपार्टमेंट या नगर का निर्माण करता है, कोई उत्खनन-खदान का काम करता है, कोई रेत-मिट्टी-खडी का काम करता है, कोई सार्वजनिक तौरपर रस्ते-महामार्ग, रेल्वे-बुलेट ट्रेन मार्ग, टनेल आदी कोई भी काम करता है, कोई भूमिसे उपजनेवाले पानी, रसायन का काम करता है, उसी के हातों भूमि तथा पृथ्वी माता का पूजन होना जरुरी है । किसी का व्यापार-उद्योग पूर्णतः भूमि से जुडा है, जैसे किसान की खेती, उद्योजक के कारखाने, व्यापारी के गोदाम जमिन पर होते है । ऐसे व्यवहार से जुडे सभी लोगोंने भूमाता का पूजन करना जरुरी है । इसिलिए हम आज पृथ्वी माता का महात्म्य इस विषयपर चर्चा करेंगे ।

भू माता के अनेक नाम है । उनमें भूमि, भुमीदेवी, भुवनी, भुवनेश्वरी, भुवनेन्द्री, भुवीशा, अवनी, पृथ्वी, धरती, धात्री, धरणी, वसुधा, वसुंधरा, वैष्णवी, विष्णुपत्नि, हिरण्मय, अम्बरस्थली, रोदसी, द्यावापृथिवी आदी नाम का समावोश है । हिंदू धर्मिय भूमि को माता कहते है । माता को इस महात्म्य को हम हमारे दिन के कार्य शुरू करते वक्त याद करते है । सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठना स्वास्थ्य और धर्म के लिए लाभदायक  माना गया है । नींद से जागने के बाद व्यक्ति ने अपने दोनों हाथों को देखना चाहिए । हाथों को देखते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए –

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती ।

करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम ॥

इस का अर्थ होता है, हाथों के अग्रभाग में लक्ष्मी, मध्य में श्री सरस्वती एवं हाथों के मूल में गोविंद का वास होता है । इसलिए प्रात: उठने पर प्रथम हाथों का दर्शन करें ।

इस मंत्र का उच्चारण करनेवाले व्यक्ति को महालक्ष्मी, सरस्वती और भगवान श्रीहरि की कृपा  प्राप्त होती है। व्यक्ति कभी भी पैसों की तंगी का सामना नहीं करता है । 

भूमि अर्थात् पृथ्वी पर हमारा वास और निवास होता है । भूमि से अनाज, साग-तरकारी, फल, पानी की उपज होती है । अनाज बोने के लिए तथा पानी के लिए कुआं बनानेके लिए भूमि की खुदाई होती है । उस समय होनेवाले आघात भूमि सहन करती है । छोटे-बडे सभीका बोझ वह संभालती है इसलिए प्रात: उठनेपर भूमिपर पैर रखनेसे पूर्व निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए –

समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते ।

विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव ॥

इसका अर्थ होती है, समुद्ररूपी वस्त्र धारण करनेवाली, पर्वतरूपी स्तनोंवाली एवं भगवान श्रीविष्णुकी पत्नी हे भूमिदेवी, मैं आपको नमस्कार करता हूँ । मेरे पैरों का आपको स्पर्श होगा । इसके लिए आप मुझे क्षमा करें ।

इसी प्रकारे मंत्र उच्चारण कर हमे हमारे दिनचर्या का प्रारंभ करतान जरुरी ।

अब हम चर्चा करेंगे भारत भूमि को माता क्यों कहा गया है ।  अगर भूमि को माता कबसे जाना गया इसका हम विचार करते है तो हमे सिंधु घाटी सभ्यता से कुछ बाते उभरकर सामने आती है । सिंधु सभ्यता ३३००-१७००  ईसवी सन पूर्व मानी जाती है । विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से सिंधु सभ्यता प्रमुख थी । सिंधु सभ्यता के लोग भी धरती को उर्वरता की देवी मानते थे और पूजा करते थे ।

भारतीय संस्कृति में मातृभूमि अर्थात जिस भूमि पर हमने जन्म लिया उसे बेहद सम्मान दिया गया है। वेद, पुराण आदी प्राचीन ग्रंथों में भी भूमि को माता का संबोधन दिया गया है । हमी भूमि को केवल मिट्टी, पत्थर नही समझते बल्कि मातृभूमि समझते है। वेदों में एक मंत्र है –

माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:

इसकी अर्थ है, भूमि मेरी माता है और मैं उस भूमि का पुत्र हूँ।

वेदों में भूमि को माता की संज्ञा दी गई है। रामायण में भी ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कहा गया है । अर्थात जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है।

भारत भूमि को माता इसलिए कहा जाता है कि हर मनुष्य भूमि की गोद में ही बच्चेसे बड़ा होता है। भूमि उसे जन्मदात्री माते के रुप में छत्रछाया देती है, उसका पालन-पोषण करती है। उसी प्रकार इस भूमि का प्रत्येक वासी इस भूमि की गोद में ही खेल कर बड़ा होता है । इसलिए इस धरती को माता कहा गया है ।

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने देवर्षि नारद जी को बताया कि पृथ्वी मधु और कैटभ नाम के दानवों के मेद से उत्पन्न हुई है । मतलब जब वह दैत्य पृथ्वी पर थे उस समय पृथ्वी स्पष्ट दिखाई नहीं देती थी । माँ दुर्गा ने उनका संहार किया, तब उनके शरीर से ‘मेद’ निकला । वही सूर्य के तेज से सूख गया । उसी मेद से पृथ्वी निर्माण हुई । पृथ्वी को तबसे ‘मेदिनी’ कहा जाने लगा । और बाद में ‘मेदिनी’ नाम से बदलकर पृथ्वी हो गया ।

ब्रह्म वैवर्त पुराण के प्रकृति खंड में पृथ्वी माता के प्रकट होने से लेकर पुत्र मंगल को उत्पन्न करने तक की कहानी दी गई है । पृथ्वी के जन्म की एक अन्य कथा के अनुसार, महाविराट पुरुष अनंतकाल से जल में रहते थे। समय बदला और महाविराट पुरुष के सभी रोमकूप उनके आश्रय बन गए । उन्हीं रोमकूपों से पृथ्वी निकलकर आयी, ऐसा माना जाता है । जितने रोमकूप हैं, उन सबमें एक-एक से जल सहित पृथ्वी बार-बार प्रकट होती और छिपती रहती है । सृष्टि के समय जल के ऊपर स्थिर रहना और प्रलय काल उपस्थित होने पर छिपकर जल के भीतर चले जाना यही इसका नियम था ।

वन और पर्वत पृथ्वी की शोभा बढ़ाते हैं। यह सात समुद्रों से घिरी रहती है । सात द्वीप इसके अंग है। हिमालय और सुमेरु आदि पर्वत तथा सूर्य एवं चंद्रमा प्रभृति ग्रह इसे सदा सुशोभित करते है ।

पृथ्वीपर सात स्वर्ग हैं। इसके नीचे सात पाताल है। ऊपर ब्रह्मलोक है । ब्रह्मलोक से भी ऊपर ध्रुवलोक है । पृथ्वीदान के पुण्य के बारे में शास्त्र कहता है कि जो पुरुष किसी ब्राह्मण को भूमि दान करता है, वह भगवान शिव के मंदिर-निर्माण के पुण्य का भागी बन जाता है।

भूकंप एवं ग्रहण के अवसर पर पृथ्वी को खोदने से बड़ा पाप लगता है । इस मर्यादा का उल्लंघन करने से दूसरे जन्म में अंगहीन होना पड़ता है । इस पर सबके भवन बने है, इसलिये यह ‘भूमि’ कहलाती है ।

महर्षि कश्यप की पुत्री होने से ‘कश्यपी’ तथा स्थिररूप होने ‘स्थिरा’ कही जाती है । अनंत रूप होने से ‘अनन्ता’ तथा पृथुकी कन्या होने से अथवा सर्वत्र फैली रहने से इसका नाम ‘पृथ्वी’ पडा है । अथर्ववेद में एक सूक्त मिलता है । इसमें पृथ्वी की उत्पत्ति के मंत्र तो बहुत थोड़े है लेकिन इनमें प्रकार के रहस्यवाद की बाते नही है । इसमें दर्शन तो बहुत कम है। यह महत्वपूर्ण सूक्त पृथ्वी सूक्त के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें ६३ मंत्र है। जिसमें पृथ्वी माता की स्तुति की गई है।

पृथ्वी देवी विश्व की सर्वोच्च शक्ति है, जो मनुष् की रक्षा करती है । एक बार सत्ययुग के दौरान, पृथ्वी को असुर राजा हिरण्याक्ष ने समुद्र में फेक दिया था । तब भगवान विष्णु ने ‘वराह अवतार’ लेकर पृथ्वी को समु्द्र से निकाला था ।

पृथ्वी ने हमेशा अवतार कार्य लिया है । त्रेता युग में माता सीता का अवतार लिया और भगवान राम की सेवा की । द्वापर में माता सत्यभामा का अवतार लिया और भगवान कृष्ण की सेवा की । कलियुग में, उन्होंने अंदल अवतार लिया और भगवान विष्णु की सेवा की और उनमें विलीन हो गई । पृथ्वी को लक्ष्मी के अवतार के रूप में भी पूजा जाता है । पृथ्वीके नाम पर कई मंदिरों का निर्माण किया गया है । उसमें से श्री भूवराहनाथ स्वामी मंदिर कर्नाटक मे स्थित एक प्रसिद्ध मंदिर है । अधिकांश विष्णु मंदिरो में, भूदेवी भगवान विष्णु और श्रीदेवी के साथ दिखाई देती है । उन्हे भगवान विष्णु की दूसरी पत्नी माना जाता है । 

अगर हम अपने मन से पृथ्वी देवी या भू देवी की पूजा करते है तो भूदेवी हमे हमारे पापों से छुटकारा दिलाती है। वह ग्रहों के बुरे प्रभावों को दूर करती है । लोगों के विभिन्न दोषों से दूर करती है । वह हमे लंबी बीमारी से भी उबारती और हमारे जीवन में एक अच्छा स्वास्थ्य और शांति देती है । वह हमारे जीवन में सभी प्रकार का लाभ और बेहतर स्थिति देती है। अगर हम लगातार उसकी पूजा करते है, तो वह हमे मोक्ष पाने में भी मदद करती है । वह हमारे जीवन मे धैर्य, ज्ञान, बुद्धि, धन, साहस और साहस प्रदान करती है ।

इस विवेचन नुसार अगर हम पृथ्वी यै भू माता का पूजन करते है, तो हमारे व्यवहार, व्यापार, उद्योग में हमे सफलता, स्थैर्य और अधिकतम सफळता प्राप्र हो सकती है । 

शुभम भवतु … मंगलाय नम

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